पथिक से - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
पथ भूल न जाना पथिक कहीं।
पथ में काँटे तो होंगे ही
दूर्वादल, सरिता, सर होंगे
सुंदर गिरि, वन, वापी होंगी
सुंदर सुंदर निर्झर होंगे
सुंदरता की मृगतृष्णा में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
जब कठिन कर्म पगडंडी पर
राही का मन उन्मुख होगा
जब सब सपने मिट जाएँगे
कर्तव्य मार्ग सन्मुख होगा
तब अपनी प्रथम विफलता में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
अपने भी विमुख पराए बन कर
आँखों के सन्मुख आएँगे
पग-पग पर घोर निराशा के
काले बादल छा जाएँगे
तब अपने एकाकी-पन में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
जब चिर-संचित आकांक्षाएँ
पलभर में ही ढह जाएँगी
जब कहने सुनने को केवल
स्मृतियाँ बाक़ी रह जाएँगी
विचलित हो उन आघातों में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
रणभेरी सुन कह ‘विदा, विदा!
जब सैनिक पुलक रहे होंगे
हाथों में कुंकुम थाल लिए
कुछ जलकण ढुलक रहे होंगे
कर्तव्य प्रेम की उलझन में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
कुछ मस्तक कम पड़ते होंगे
जब महाकाल की माला में
माँ माँग रही होगी आहुति
जब स्वतंत्रता की ज्वाला में
पलभर भी पड़ असमंजस में
पथ भूल न जाना पथिक कहीं!
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